Sunday, April 16, 2017

                     खुद की ताक़त


छोड़ दिआ है खुदको की जा उड़
बोल दिआ रस्ते से की अब कहीं भी तू मुड़
खोल के नज़रें ऊपर दिशा  की तरफ हैं लगाई
की जो दृश्य है खुले आसमान का उनसे मेरी उमीदें रहीं है जुड़

बिछा के अरमानों की चादर मैंने उम्मीद में बढ़ना सीखा है
लाख हो ऊँचा पहाड़ उसपर चढ़ना सीखा है
टूट तो रहे थे सारे किले मेरे सपनो के मगर
उसी रेत के किले को फिर से खड़ा करना सीखा है

हाथों में बनी लकीर को पढ़ने से कुछ हासिल नहीं होता
बनी बनाई  दुनिया की रीतों में रहने से कुछ नहीं होता
जो रेस में जीतते है वो तो बस महज़ दुनिया के सामने होते हैं पर
पर जो रोज़ गिर कर चलतें हैं उनसे ज़्यादा कोई काबिल नहीं होता

सामना करते करते लड़ने लगता है हर कोई
अपनी हार देखकर खुद से झगड़ने लगता है हर कोई
डर होता ही इसलिए है हमारे लिए
की सामना होते ही टूटी डोर पकड़ने लगता है हर कोई 

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