Saturday, August 20, 2016


                                                        रामवीर का सपना 



शाम का सात बज रहा था मटके अभी सूखे भी नहीं थे कि शुक्ला जी आ गए थे उन्हें लेने ,,,,रामवीर मटका बनाने वाला एक गरीब कारीगर था ,,और  शुक्ला जी गाँव में सबसे रहीस हस्ती थे।  गाँव में खबर थी की शुक्ला जी को तो पढ़ना भी नहीं आता था वो तो उनके पिता जी गाँव के प्रधान थे जो सब उनकी बहुत इज़्ज़त किया करते थे ,,शुक्ला जी चार साल पहले ही शहर गए थे और वहाँ पता नहीं कौन सा जादू चलाया की उनकी शहर में पांच दुकाने थी और उन दुकानों में शुक्ला जी कला से सुस्सजित हर वो वस्तु रखते थे जो बहुत ही सुन्दर होती थी ,,,,,

घोड़ा गाड़ी वाले  शुक्ला जी अब आसमान से नीचे पैर ही नहीं रखते थे और चालाकी तो उनके चेहरे से झलकती थी पर रामवीर क्या करता उसके लिए तो वही उसके अन्न दाता थे जो कुछ वो कमाता था वो शुक्ला जी को बेचे हुए मटकों और मूर्तियों से ही होता था ,,बस वो अपना और अपनी एक लौती बेटी गुड़िया का पेट ही भर  पाता था हालाँकि उसकी बेटी अब पढाई लायक हो गई थी पर धन न होने के कारण ये मुमकिन ही नहीं था की वो दाखिला ले पाए ,,अब कमाई भी तो देखो शुक्ला जी एक मटके के दो रूपए और मूर्ती के दस रूपए देते थे ,,रामवीर कई बार रूपए बढ़ाने की बात कर चुका था पर हर बार शुक्ला जी गाँव से निकलने की धमकी देकर शांत करवा देते थे। बस इसी डर के मारे रामवीर कुछ बोलता नहीं था 

 शुक्ला जी : अरे कहाँ मर गया जल्दी से आज का सामान ला दे और अपना हिस्सा ले जा ,,मझे बहुत जल्दी है घर पर दावत है मेरा बेटा अव्वल आया है। 
रामवीर : साहब मेरी भी बेटी का दाखिला करवा दीजिए मैं आपका ग़ुलाम बनकर रहूँगा। 
शुक्लाजी : अरे हट ! तू अपनी बेटी को चव्का बर्तन सीखा और किसी लड़के से शादी करदे ये क्या पढ़ेगी और तब ही ले लेना रूपए ,,,चल अब जल्दी से मटके दे ज़बान मत लड़ा। 

दुखी होकर रामवीर ने पैसे लिए और किवाड़ा बंद करके अंदर चला गया ,,,
रामवीर एक बहुत बड़ा कलाकार था उसके हाथ में ऐसा जादू था की जिस भी मिट्टी को छूट उसमे जान डाल देता  टूटी हुई मूर्ती तो ऐसे संवारता जैसे अभी बोलदेगी वो मूर्ती ,,सभी गाँव वाले उसकी तारीफ करते थे और उसे समझाते थे की शुक्ला जी के चक्कर में न पड़े ,,पर मजबूर रामवीर क्या कर सकता था ,,,
बस रामवीर तो अपनी मरी हुई बीवी को दिया हुआ वादा की अपनी बेटी को वो सरकारी ऑफिसर बनाएगा कैसे पूरा करेगा सोच सोच कर ढला जा रहा था। .... 

आठ महीने बाद ,
                 रामवीर : मेरे पास  इतने पैसे नहीं हैं की मैं गुड़िया को पढ़ा सँकू ,,
                 राधिका :मुझे नहीं पता अप्रैल का महीना आ गया है सब                                      जगह दाखिल शुरू हो गए हैं आप भी कुछ                                       कीजिए। 

                  रामवीर :बताओ क्या करूँ अपनी जान दे दूँ क्या ?

                   राधिका:अगर नहीं पढ़ा सकते अपनी बेटी को तो                                              देदीजिए अपनी जान जीने का आपको कोई हक़                                    नहीं। 


रामवीर की नींद टूट गई और थोड़े पल तो उसको समझ नहीं आया की सपना था या हकीकत ,,आँखें लाल आंसुओं की जैसे बारिश हो रही हो और सांसें तक चढ़ी  हुईं  थी ,,,इस दुःख में रामवीर इतना डूब गया की अब उसने खुदखुशी की ठान ली ,,,,बौखलाया हुआ रामवीर अब कुछ सोच नहीं पा रहा था  उसने जैसे ही चाकू उठाई उसने देखा की सूरज की एक बहुत छोटी से किरण एक मूर्ती पर पड़ रही थी जो टूटी हुई थी वो मूर्ती कल रात गुड़िया उठा लाई थी और कह रही थी की इसे तक कर दीजिए ,,रामवीर  ने सोचा की जाते जाते गुड़िया की ये मूर्ती बना दूँ ,,,बस फिर क्या था उठाई मूर्ती और शुरू हो गया ,,,रामवीर उस मूर्ती को बनाता जा रहा था और उसकी आँखों के सामने उसकी ज़िन्दगी भर के वो सरे पल आने लगे थे जो उसके लिए बहुत अच्छे थे ,,करीबन तीन घंटे बाद उसके हाथ में मिट्टी और आँखों में मरने की ज़िद्द थी ,,,मूर्ती बनी ही थी की दरवाज़े पर आहट हुई ,,बड़बड़ाते उठा की शुक्ला जी न तो जीने देते हैं न ही मरने ,,,दरवाज़ा खोला तो एक पच्चीस साल का लड़का खड़ा था ,,,चबूतरे से भी लंबी एक गाड़ी खड़ी थी जिसमे एक काला कपडा पहने एक वक़ील साहब बैठे थे ,,


      वक़ील : ये जो मटके और मूर्ती बनाते हो वो तुम ही हो न। 

      रामवीर : नहीं मर गया वो अब कोई नहीं बनाता मटके मटकी                               चले जाइये यहाँ से। 


इतने में नज़र घुमाई तो वो लड़का घर के अंदर जा चुका था और उसी मूर्ती को देख रहा था जो अभी रामवीर ने अपनी गुड़िया के लिए तैय्यार की थी ,,,मूर्ती की जितनी तारीफ करो वो कम थी ,,,एक तरफ चहरे के मुस्कराहट थी तो दूसरी तरफ दुःख था ज़िन्दगी के दोनों रूप उस मूर्ती में दिख रहा था ,,,

वक़ील:ये मूर्ती का काम तुम शहर क्यूँ नहीं लाते। 
रामवीर: मैं तो गरीब आदमी हूँ साहब कभी रेलगाड़ी में नहीँ बैठा ,,शहर कैसे आता। 
वक़ील : अच्छा एक बात बताओ शुक्ला जी तुमसे ही मूर्तीयाँ लेकर जाते हैं?
रामवीर : हाँ साहब दो रूपए का मटका और दस रूपए की मूर्ती। 
वक़ील : तुम्हे कुछ अंदाज़ा भी है ये कितने की बिकती है शहर में ?
रामवीर : कितने की बिकती होगी साहब सौ रूपए की 
वकील : ये मूर्ती वह हज़ारों की बिकती हैं इनकी नीलामी होती है शहर में। ..शुक्ला जी अच्छा खेल गए तुम्हारे साथ वो तो मेरा बेटा बचपन से ही बोल और सुन नहीं सकता पर इसे मुर्तीयों से बहुत लगाव है इसने जब शुक्लाजी के यहाँ तुम्हारी मूर्ती देखि तभी इसे शक हो गया था की कुछ तो गड़बड़ है ये उनके हाथ की मूर्ती नहीं और तबसे ये तुम्हें ढूंढ रहा है ,.. 
ये सुनते ही रामवीर के पैरों से ज़मीन खिसक गई पर उस लड़के ने उसे गले लगा लिए और गिरने से बचा लिया ,,,,पहली बार इतना स्नेह और प्यार देख वो भी बच्चे जैसा रोने लगा। ....... बहुत ज़िद्द करने पर रामवीर और गुड़िया वकील के साथ शहर चले गए ,,


आज  मूर्ती की नीलामी थी और डेढ़ करोड़ की वो मूर्ती बिकी और आज ही के दिन गुड़िया का दाखिला भी हो गया। .रामवीर का किया हुआ वादा पूरा हो गया था  अपनी बेटी को स्कूल के दरवाज़े पर यही समझाया की 
"कला  के कद्र करने वाले काम नहीं हैं इस दुनिया में इसलिए सदा ही अपना काम बखूबी करते रो कोई न कोई इसे ज़रूर पहचानता है ". . . . . . 



 समाप्त। 











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